कई बार यह सवाल उठता है कि मीडिया क्रांति के इस युग में रंगमंच के क्या मायने हैं. अँधेरे प्रेक्षा गृह में सीमित दर्शक समूह के समक्ष प्रदर्शन करना कितना प्रासंगिक है जबकि आज सैकडो टी वी चैनल्स एक संवाद पर करोडों मुस्कान को हासिल करने का दावा कर रहीं हैं।
यह सवाल बिल्कुल जायज हैऔर इसका जवाब भी उतना ही परखा और तर्कसंगत है. रंगकर्म का सीधा सार्थक उद्देश्य जनता कीभावानायों को कलात्मक अभिव्यक्ति से जोड़कर प्रगतिशील वैचारिकता की प्रति लोगों को संबध रखना है. समाज में कहीं भी किसी के साथ जो कुछ भी गलत हो रह है; जनवादी, लोकतांत्रिक एवं मान्वियाय मूल्यों के खिलाफ हो रह है; उसका कलात्मक प्रतिकार ही रंगमंच का प्राथमिक लक्ष्य है और ऐसा एल जीवंत संवाद संप्रेषण के माध्यम से ही संभव है. प्रेक्षा गृह में बिठा दर्शक, कभी भी सिनेमा या टी व के दर्शकों की तरह निरपेक्ष नहीं होता है. बल्कि नाट्य प्रस्तुति का हिस्सा होता है. पूरे नाटक के आलेख में मौन भाव से प्रस्तुति को देखा रह दर्शक भी एक अभिनेता के रुप में मंच पर मौजूद रहता है।
सीमित दर्शक समूह तक पहुंच होने के बाद भी रंगमंच का असर व्यापक है और इसके संवाहक दर्शक होते हैं. एक नाट्य प्रस्तुति देखने वाला दर्शक नाट्य विचार के उत्प्रेरक और संवाहक दोनो की भूमिका को निभाता है. एक आदमी से दूसरे तक और दूसरे से अगले तक विचारों को पहुँचने के लिए प्रेरित करना भी रंगमंच का अन्तर्निहित उद्देश्य और सार्थकता है. इसी कारन दुनिया के हरेक कोने में रंगमंच (चाहे किसी भी रुप में हो) अपने दायित्वों कू पूरा कर रह है. कहीं सांस्थानिक ढान्चे में तो कहीं लोक-गँवाई रुप में हर गली हर चौक पर रंगकर्म मानव संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर रह है. ‘इप्टा’ जैसे संगठनों की सक्रियता इसके पुख्ता प्रमाण हैं और यह अव्यावसायिक कलाकारों – संगठनों की व्यावसायिक गुणवत्ता के कारण हो सका है.
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